ईश्वर
हमारे धर्मग्रंथों, पुराणों में यही संदेश दिया गया है कि ईश्वर सर्वत्र है। इसलिए कहा जाता है कि अगर ईश्वर को देखना हो, तो हमें अपने भीतर देखना चाहिए। वे सभी प्राणियों में हैं, इसलिए सभी प्राणी उनकी संतान है। एक दिन स्वामी रामकृष्ण परमहंस से उनके एक शिष्य ने प्रश्न किया, ‘ज्ञान-अज्ञान को कैसे पहचानें?’ स्वामी जी बोले, ‘जब तक हम यह समझें कि ईश्वर कहीं बाहर या दूर है, तब तक अज्ञान है। पर जब हम ईश्वर को अपने अंदर ही अनुभव करते हैं, उसी क्षण यथार्थ ज्ञान का पता चलता है। जो प्राणी ईश्वर को अपने ह्रदय की गुहा में देखता है, वह ईश्वर को समस्त जगत में भी अनुभव करता है।’ संत कबीर ने भी कहा है, ‘मोहे कहां ढूंढे है बंदे, मैं तो तेरे पास में।’ या फिर ‘जब मैं था तब हरि नाही, अब हरि है मैं नाही।’ यानी जब मैं अहंकार में था, ईश्वर नहीं था। पर जैसे ही अहंकार खत्म हुआ, ईश्वर के दर्शन हो गए।
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