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Many Types of Worship

भक्‍ति एक प्रकार अनेक: 

सभी धर्मों में भक्‍ति का बहुत महत्व है। भक्ति ऐसा मार्ग है, जिसे कोई भी व्यक्‍ति बड़ी सरलता से अपना सकता है और ईश्‍वर की कृपा प्राप्त कर सकता है। असल में ईश्‍वर प्राप्ति का यह शीघ्र फल देने वाला माध्यम है। भक्ति के माध्यम से मनुष्य अपने दुर्गुणों व पापों से मुक्त होकर उस परम पिता परमेश्‍वर के परमधाम को प्राप्त कर लेता है। शास्‍त्रों में भक्‍ति के नौ प्रकार बताए गए हैं। इन नौ का श्रद्धापूर्वक पालन करने वालों को मोक्ष की प्राप्‍ति हो जाती है और वह जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाते हैं। 
  • श्रवण भक्‍ति: भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, महिमा, तत्व व रहस्य की पुण्य कथाओं का श्रद्धा व प्रेमपूर्वक श्रवण कर भगवान के प्रेम में मग्न होकर अपनी सुधबुध खो देना ही श्रवण भक्‍ति कहा जाता है। 
  • कीर्तन भक्‍ति: भगवान का गुणगान करते हुए शरीर में रोमांच हो जाना, गला रुंध जाना, हृदय प्रफुल्लित हो जाना आदि कीर्तन भक्ति का रूप है। इस तरह की भक्‍ति में कभी-कभी आंसू भी निकल पड़ते हैं, जो भक्त के ईश्‍वर के प्रति अगाध समर्पण का परिचायक माना जाता है। 
  • स्मरण भक्‍ति: अगर भक्त भगवान के प्रभाव, उनके संपूर्ण रूप और उनकी अमृतमयी कथाओं का श्रद्धापूर्वक पाठन व श्रवण करता है और चिंतन मनन में स्वयं की सुधि भुलाकर भगवान के स्वरूप में तल्लीन हो जाते हैं, तो यह स्मरण भक्‍ति का भाव कहा जाता है। 
  • पाद सेवन भक्‍ति: भगवान के विशाल मंगलमय स्वरूप की धातु की मूर्ति, चित्र या मानसिक मूर्ति के श्री चरणों का प्रेम व श्रद्धापूर्वक दर्शन, चिंतन, पूजन व सेवन करते-करते भगवान के प्रेम में भाव-विभोर होकर अपनी सुधबुध खोकर भगवान के श्री चरणों में तल्लीन हो जाना पाद सेवन भक्‍ति कही जाती है। 
  • अर्चन भक्‍ति: शास्‍त्रों में बताए गए भगवान के स्वरूप की सुंदर व सजीव मूर्ति या चित्र या मानसिक मूर्ति का श्रद्धापूर्वक पुष्प, चंदन आदि उपचारों द्वारा भगवान का पूजन व सेवन करना और पूजन करते-करते भगवान के प्रेम में लीन हो जाना अर्चन भक्‍ति कहा जाता है। 
  • वंदन भक्‍ति: अगर भगवान की मूर्ति या ऐसे ही स्वरूप में साक्षात ईश्‍वर को महसूस कर उनका प्रेम व श्रद्धापूर्वक दर्शन करते हुए उनके प्रेम में भावविभोर होकर उन्हें शारीरिक या मानसिक रूप से प्रणाम करना और ऐसा करते हुए अपनी सुधि खो देना वंदन भक्ति कहलाता है। 
  • दास्य भक्ति: अगर भक्त भगवान के पूजन-सेवन में तत्पर रहे और भगवान को अपना स्वामी व स्वयं को उनका दास समझकर उनकी प्रतिमा या मूर्ति की सेवा व मंदिर की साफ-सफाई आदि करे व ऐसा करके स्वयं को धन्य समझे तो यह दास्य भक्ति का स्वरूप है। 
  • सख्य भक्ति: अपने आराध्य के प्रभाव व उनकी शक्ति को जानकर प्रेमपूर्वक भगवान की रुचि के अनुसार खुद को बदल लेना, भगवान को मित्र भाव से मित्र की भांति प्रेम करना, अपना हर सुख-दुःख भगवान से बांटना व उनके रूप गुण से मुग्ध होकर सदैव प्रसन्न रहना ही सख्य भक्ति का स्वरूप माना जाता है। 
  • आत्म निवेदन भक्ति: ईश्वर की महिमा को जानकर ममता व अहंकार से रहित होकर अपने-पराये का भाव त्यागकर तन-मन-धन सहित स्वयं को व अपने समस्त कार्यों को भगवान के प्रति समर्पित कर देना ही आत्म निवेदन भक्ति कहलाता है। यह श्रेष्टता का बोध करती है।

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