तीन प्रकार के कर्म
जीवन एक नदी की धारा है। यदि धारा बीच में सूख जाती है, वही मृत्यु है और फिर बहने लगती है, वही फिर जन्म है।
मांगलिक पर्व अपनी-अपनी संस्कृति के प्रतीक होते हैं। उनसे न केवल संस्कृति की परंपरा का पोषण होता है, अपितु मानव जीवन को चलाने वाले उन तत्वों का भी बोध होता है, जिनसे समाज की रचना हुई है, जो मानव के हर्ष-उल्लास को उजागर करते हैं और जो धरोहर के रूप में विद्यमान रहकर हमारी सामाजिक चेतना को जाग्रत करते हैं।
प्राय: तीन प्रकार के कर्म बताए गए हैं। संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म और क्रियमाण कर्म। जो हमारे जन्म-जन्मांतरों के चले हुए कर्मों का समुच्चय है, वह संचित कर्म कहलाते हैं। जिन कर्मों के आधार पर हमें मनुष्य जीवन मिला है, वे प्रारब्ध कर्म हैं और जो कर्म हम दिन-रात इस जीवन में करते हैं, उन्हें क्रियमण कर्म कहा जाता है। संतों का मत है कि सद्गुरु की शरण में जाते ही समस्त संचित कर्म समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि गुरुजी उन्हें अपने ऊपर ले लेते हैं और प्रारब्ध कर्म हमारी मृत्यु के पश्चात समाप्त हो जाते हैं। परंतु क्रियमण कर्म अंत तक चलते रहते हैं और उनसे ही फिर प्रारब्ध कर्म का निर्माण होता है। अत: सदैव जीवन में शुभ कर्म ही करते रहना चाहिए।
संपूर्ण ब्रह्मांड के अणु-अणु और कण-कण उसी परमात्मा के अंश हैं। वह अंतर्यामी अंशांशी भाव में सर्वत्र व्याप्त हैं, फिर किसे छोटा कहें और किसे बड़ा, किसे राजा कहें और किसे रंक, किसे नीच कहें और किसे ऊंच। वह अंतर्यामी ही सारे प्राणियों में विद्यमान है, फिर यह भेदभाव कैसा? सभी प्राणी एक समान हैं।
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