गीता ज्ञान (Geeta and Krishana)
गीता के प्रकाशन में कोई एक व्यक्ति, संस्था या कोई पंथ नजर नहीं आता। केवल यही एक तथ्य सिद्ध करता है कि गीता को अन्य पंथों के विद्वानों ने भी पसंद किया और अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद करके अपनी टिप्पणियों सहित प्रकाशित किया। गीता की पृष्ठभूमि महाभारत के उस युद्धमय वातावरण से संबंधित है, जब कौरवों और पांडवों की सेनाए आमने-सामने खड़ी थी। युद्ध का बिगुल बज चुका था। उस नाजुक और संघर्षमय वातावरण में अर्जुन ने हथियार डालते हुए अपने मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक श्रीकृष्ण से कहा, ‘मैं युद्ध नहीं करना चाहता, मैं अपने सगे-संबंधियों पर हमला कैसे करूं?’ ऐसे गंभीर, परंतु अतिसंवेदनशील प्रश्न पर मार्गदर्शन देते हुए योगीराज श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिए, वे महाभारत के 23वें अध्याय से 40वें अध्याय में समाहित हैं, जो आगे चलकर गीता सिद्धांत के नाम से विख्यात हो गए। अर्जुन के प्रश्न का उत्तर सामान्य भाषा में भी दिया जा सकता था, परंतु श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन को इस उत्तर से जुड़े मानव जीवन के अनेकों गूढ़ प्रश्नों का उत्तर समझाते हुए मानवीय मूल्यों का मार्ग स्थापित करने का प्रयास किया। ये गूढ़ प्रश्न थे, ‘आत्मा की प्रकृति क्या है? आत्मा की अनंत यात्रा पर इस मानव जीवन का उद्देश्य और मिशन क्या है? मनुष्य किस प्रकार सारे कर्म-कर्त्तव्य करता हुआ भी उसके फल से किस प्रकार अप्रभावित रहने का अभ्यास कर सकता है? व्यक्ति इस जीवन यात्रा पर अपना सर्वस्व अधिकार समझे या सारी सृष्टि का निर्माण करने वाले परमात्मा पर अपना सर्वस्व समर्पित करे?’
इन चार गूढ़ प्रश्नों के उत्तर में श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन को क्रमश: इस प्रकार एक महान वैदिक सिद्धांत समझाने का प्रयास किया। आत्मा न पैदा हुई न मरती है। यह उसी प्रकार है, जैसे परमात्मा न पैदा हुआ, न मरता है। अगर व्यक्ति आत्मा की इस मूल प्रकृति को हर वक्त स्मरण रखे, तो बेशक आज का कलियुग ही क्यों न हो, किसी प्रकार का भय व्यक्ति को सता ही नहीं सकता। यह था कर्म मार्ग, जिसमें व्यक्ति को सदैव अन्याय के विरूद्ध निडर रहकर संघर्ष की प्रेरणा मिलती है। इस संघर्ष में व्यक्ति को नि:स्वार्थ भाव से ही कार्य करना सुगम और हितकर बताया गया। नि:स्वार्थ भाव से काम करने वाले की एकाग्रता स्वार्थी व्यक्ति से अधिक होती है। स्वार्थी व्यक्ति कदम-कदम पर फल मिलने या न मिलने की चिंता करता रहता है और इस कार्य पर उसकी एकाग्रता कहीं न कहीं कम हो जाना स्वाभाविक है। आत्मा की इस अनंत यात्रा पर उसे अनेकों योनियां और शरीर प्राप्त होते हैं। 84 लाख योनियों की यात्रा करने के बाद मानव शरीर में आने पर आत्मा का मुख्य उद्देश्य परमात्मा से लगातार संपर्क बनाए रखना होना चाहिए। यह है भक्ति मार्ग।
कर्म मार्ग और भक्ति मार्ग मिलकर ही एक सर्वोत्तम ज्ञान मार्ग है। वैसे कहने को श्रीमद्भागवद्गीता नि:स्वार्थ कर्म का सिद्धान्त स्थापित करती है। परन्तु विद्वानों ने इसी सिद्धांत को वेद, दर्शन और उपनिषदों का सारगर्भित सिद्धांत भी माना है। महात्मा गांधी ने तो यहां तक कहा है कि गीता सिद्धांत मनुष्य के जीवन से जुड़ी समस्त समस्याओं का निदान है। यह समस्त पंथों की भी सारगर्भित अभिव्यक्ति है। यह हर प्रकार के व्यक्ति को संबोधित करती है - चाहे वह कोई महान पुण्यात्मा हो या कोई बड़े से बड़ा पापी, स्वार्थी हो या नि:स्वार्थी। आज केवल यही एक पुस्तक है, जो सारी प्रकार की मानसिक बीमारियों का अचूक इलाज बन सकती है।
Post a Comment