Header Ads

ad

Apsara, Yakshini Questionnaire


क्या ग्रहस्थ जीवन में साधना करी जा सकती हैं?
घर ग्रहस्थ छोडकर कोई भी साधना कर सकता हैं लेकिन ग्रहस्थ में रहकर साधना करना कठिन कार्य में एक हैं। उदाहरणतः जब व्यक्ति पूर्णतः खाली हैं तो पुजा पाठ क्यों नहीं कर सकता? यह कोई बडा कार्य नहीं हैं। एक सन्यासी को कितना काम होता हैं? केवल एक समय का भोजन और मंत्र जप लेकिन ग्रहस्थ जीवन में अनेकों कार्य करने पड़ते है और ऐसे में साधना करना कठिन हो जाता हैं। मान लो कि आप साधना कर रहे हैं और आपके साधना के समय आपके पिता किसी कारण से होस्पिटल में एडमिट हो जाए तो आप क्या करोगें? साधना करोगें या उनके स्वास्थ का ध्यान रखोगें? इस प्रशन का उत्तर आपके पास होगा। मैं इसका उत्तर नहीं दे सकता! हर व्यक्ति के लिए प्रशन का उत्तर अलग हो सकता हैं। किसी भी साधक को इस प्रकार की कठिनाई हो सकती हैं या आयु, परिवार, माहौल के अनुसार अन्य कठिनाई हो सकती हैं। ग्रहस्थ जीवन में साधना करने में काफी दिक्कते रहती हैं इसलिए साधक को साधना का चुनाव बहुत सोच समझकर ही करना चाहिए। समान्यतः साधनाए सात से लेकर इक्कीस दिन की होती हैं या इससे अधिक समय की भी हो सकती हैं। साधक को अपनी आयु और परिस्थिति को ध्यान में रखकर साधना का चयन करना चाहिए। साधक की आयु और शक्ति के कारण साधना के समय और परिणामों मे अंतर आ जाता हैं। ग्रहस्थ जीवन मे साधना करी जा सकती हैं लेकिन साधना के दौरान साधक को सन्यासी जीवन के नियमों का पालन करना पड़्ता हैं। साधक के लिए कुछ अवश्यक नियम होते है जैसे सेक्स ना करना, तामसिक भोजन से दुर रहना, एक समय भोजन करना, भुमिशयन, झुठ, क्रौध आदि का त्याग। इस प्रकार के नियम इक्कीसवी सदी में नियम जैसे लगते हैं लेकिन दौ सौ वर्ष पूर्व देखे तो यह सब सामान्य बाते थी जो आज नियम कहकर समझनी पड़ती हैं। आज के मानव नें अपने आपको इतना आलसी और ऐश्वर्य युक्त बना लिया हैं कि घरवाली भी चाहिए तो रिमोर्ट से चलने वाली।

कलियुग में, साधना, देवता, धार्मिक ग्रंथो और गुरुओं पर विश्वास ना होना एक सामान्य बात हैं। मेरा तो यही कहना हैं कि यदि किसी व्यक्ति को साधना, अपने गुरु, यंत्र, देवी देवता पर विश्वास नहीं हैं तो ऐसे में साधना क्यों करता हैं? क्यूं अपने धन, श्रम और शक्ति का ह्रास करता हैं। जब उपरोक्त पर आस्था हो तभी साधना करने से कोई लाभ हो सकता अन्यथा साधना से किसी लाभ की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। किसी भी साधना में साधक को आसन पर लगभग एक घंटा स्थिर रहना होता है और मंत्र जप करना पडता हैं और साधनाओं के लिए अवश्यक सामग्री भी चाहिए होती हैं जोकि विश्वास ना होने के कारण व्यर्थ हो जाते हैं।

क्या अप्सराए, गन्धर्व, यक्षिणीयां आदि अन्य योनियां होती हैं?
यह सत्य हैं कि मनुष्य और जीव जंतुओं की भांति देव, भुत-भुतिनी प्रेत आदि अन्य क्षुद्र और दास योनियां भी होती हैं। अप्सराए अलग नहीं होती, गन्धर्वों या यक्षिणी में श्रेष्ठ युवतियां जिनको स्वर्ग में स्थान प्राप्त हो, अप्सराए कहलाती हैं। स्वर्ग के बाद महास्वर्ग भी होता हैं जिसकी देवियों का जिक्र नहीं आता। उदारणतः जिसको भुतों प्रेतों पर यकीन नहीं वो एक दिन के लिए महेन्दी पुर, बाला जी, भैरव जी और काली के मन्दिर में जाए तो और निरक्षण करें तो स्वतः ही ज्ञात हो जाएगा कि भुत प्रेत आदि होते हैं। जब भुत प्रेत आदि  मानव शरीर में प्रवेश करते हैं तो उनकी बातें कोई भी सुन सकता हैं अन्यथा कोई सिद्ध। आज भी मध्य प्रदेश में चौसठ योगिनीयों का मन्दिर हैं। इस स्थान पर योगिनी शीघ्र सिद्ध हो जाती हैं। अप्सराए और यक्षिणीयों को मन्दिर में स्थान दिया हैं। हिमाचल प्रदेश में भी कुछ ऐसे मन्दिर हैं और स्थान हैं जो इस प्रकार की साधनाओं के लिए प्रसिद्ध हैं। कामक्षी देवी के मन्दिर में भी अप्सरा और यक्षिणी आदि देवियों की प्रतिमाए देखने को मिलती हैं। विभिन्न यंत्रों में भगवती के पुजन से पहले इनका पुजन होता हैं और अनेकों धार्मिक ग्रन्थों में जिक्र आता रहता हैं। धार्मिक ग्रंथों में अनेको परासुन्दरीयों की साधना दी गई हैं।


जब कोई साधक साधना शुरु करता हैं तो उसे भी अनेकों अनुभव समय समय पर होते रहते हैं जो इस बात का प्रमाण हैं यह आपकी साधना सही दिशा में चल रही हैं। बिना साधना किए किसी को कैसे मालूम होगा कि फ्लां देवता हैं भी या नहीं? साधनाए में दो भाव परिचलित हैं एक पशु भाव और दूसरा वीर भाव। पुरश्चरण में साधक पशु की भांति डरते ड़रते पुजा करता हैं। महा साधनाओं को इसी भाव से किया जाता हैं। साधक सिद्धियों से ड़रते हुए पुजन करता हैं कि कहीं मुझे से भुल ना हो जाए लेकिन वीर भाव इसका विपरीत भाव हैं या तो कर जाउंगा या मर जाउंगा। पुरश्चरण मनुष्य के बुढापे की भांति है और वीर भाव जवानी की भांति हैं। अप्सराओं की साधना में वीर भाव की अवश्यकता हैं ना की बुढापे की। वृद्धों को इस प्रकार की साधनाओं से दुर रहना चाहिए क्योंकि वृद्ध व्यक्तियों के पास तर्क वितर्क के अलावा कुछ नहीं होता। शरीरिक दुर्बलता, भय, यौवन की कमी आदि आदि कमीयां बुढपे में स्वयं ही आ जाती हैं। तर्क वितर्क के स्थान पर कर्म और देव शक्तियों को प्रधान मानकर साधना करी जाए तो निश्चित ही साधनाए सिद्ध होती हैं। कुतर्क एवं तर्क वो मनुष्य करता हैं जिसे देवताओं गुरुजनों और धार्मिक ग्रंथों पर यकीन नहीं होता। इसके स्थान पर साधना कर्म की पुनः आवृति करना ही श्रेष्ठ हैं।

क्या देवी भगवती होती हैं? भगवती के कितने स्वरुप होते हैं? कितने रुपों मे भगवती दर्शन देती हैं? इस प्रकार के प्रशन स्वयं से करने से आपको अपेक्षित उत्तर प्राप्त हो जाएगा। इन देवी-देवताओं के इतने सारे मन्दिर और सिद्ध पीठ क्यों हैं? अप्सराए आदि देवियों के अस्तित्व को लेकर हमें बस इतना ही तो कहा हैं कि सिद्ध पीठ में जो देवियां स्थापित हैं यह सब योनियां उनकी सेविकाए हैं। जब सिद्ध पीठों में आपकी अस्था हैं तो इनकी सेविकाओं का अस्तित्व क्यों नहीं हैं। दुर्गा सप्तशती में भी देवांगनाओं का जिक्र आता हैं। महादेवियों की साधनाओं में देवी की सिद्धि तो प्राप्त हो सकती हैं लेकिन देवियों के दर्शन दुर्लभ होते हैं। कलियुग में दर्शन के लिए महादेवियों की सहायक शक्तियों, दासियों, एवं अन्य क्षुद्र योनियों आदि की उपासना ही की जाती हैं और दर्शन लाभ के साथ सिद्धियां भी प्राप्त हो जाती हैं।



एक अप्सरा या यक्षिणी की सामान्य आयु एक वाराह कल्प होती हैं। एक कल्प में कितने सालो और कितने युग बीत जाते हैं लेकिन अप्सराओं के यौवन का एक दिन भी समाप्त नहीं होता। अप्सरा और यक्षिणी सदैव जवान, आनन्द से भरी और अनेकों शक्तियों से युक्त होती हैं। देखने में इनकी आयु सौलह से अठ्ठारह वर्ष के बीच होती हैं। छः फुट से अधिक कद, पूर्णतः गौर वर्ण लेकिन हल्की सा गुलाबीपन लिए हुए, सुन्दर मुखडा, विशाल नेत्र एवं तीखे नयन नक्श, सुरख गुलाबी होठ, लम्बी गर्दन, उन्नत और पुष्ठ स्तन, पलती कमर, आकर्षक नितम्ब, नाना प्रकार के आभुषणों, नुपूर व वस्त्रों से सुसजित एवं मादकता के भाव के साथ साथ अनेकों कलाओं से परिपूर्ण रहती हैं। शरीर से निरंतर अलग अलग प्रकार की गन्ध स्रावित होती रहती हैं। इन देवियों ने हर युग में भौतिक साधनों की प्रप्ति और नेतिक कार्य में साधकों का साथ दिया हैं। ऐसी अनेकों कथाए प्रचलित हैं। कलियुग में सभी साधनाए किलित हैं इसलिए साधक को जल्द अनुभव नहीं होते और साधक निराश हो जाता हैं। सही मार्ग और निर्देशन में करी गई साधनाए जल्द सफल हो जाती हैं। साधक को साधना के दौरान इनके शरीर से आने वाली गन्ध कभी तीव्र और कभी मन्द मन्द अहसास और नुपुर आदि ध्वानियां सपष्ट सुनाई देने लगती हैं।  

निरंतर साधना, योग और ध्यान आदि करनें वाले साधको को साधना शीघ्र सिद्ध हो जाती हैं। मनुष्य के मस्तिक से विधुत संचालित यंत्रों की भांति अनेक तरंगे निकलती हैं। विधुत यंत्रों से तरंगें हर्टेज, किलो हर्टेज, मेगा हर्टेज और गिगा हर्टेज में निकलती हैं और इनके रिसीवर भी इन तरंगों को ग्रहण और प्रेषण के लिए बनाए जाते हैं तभी यह सेंडर और रिसीवर एक-दुसरे के सन्देशों का आदान प्रदान करते हैं। ठीक इसी प्रकार, साधक के सहस्त्र चक्र से अति सुक्ष्म तरंग जिसकी आवृति पांच से सौलह हर्टेज होती हैं, साधना के दौरान निकलती रहती हैं। पांच हर्टेज से कम आवृति वाला व्यक्ति पागल के समान हो जाता हैं उसका संसरिकता से लेना देना नहीं रहता। सामान्यतः जगते समय और मनुष्य के काम करते समय इस तरंग की आवृति दस से सौलह हर्टेज के बीच रहती हैं लेकिन ध्यान, योग और साधना में गहन मंत्र जप के समय इसकी आवृति घटकर छः से नौ हर्टेज के बीच रह जाती हैं। जब मनुष्य की तरंतों की आवृति छः के आसपास होती हैं तो साधनाए सिद्ध हो जाती हैं। मंत्र एक ध्वनि विज्ञान हैं और तरंगे भी ध्वनि विज्ञान हैं। यह तरंगे क्रमश गिगा, मेगा, किलो और हर्टेज हैं। गिगा हर्टेज मुश्किल से दस से बीस मीटर की दुरी ही तय कर पाती हैं, मेगा हर्टेज इससे अधिक दुरी, किलो हर्टेज और अधिक दुरी तय कर पाती हैं। हर्टेज सबसे अधिक दुरी तय कर पाती है। दस से कम हर्टेज की आवृति सबसे अधिक दुरी तय कर पाती हैं। दस हर्टेज से कम हर्टेज लाखों किलीमीटर की दुरी सेकिंडों मे तय कर लेती हैं। हर्टेज ही देवी देवता से सम्पर्क स्थापित करवाती हैं। अब इसका अभ्यास इतना सरल तो नहीं हैं। ध्वनि विज्ञान के पास ऐसे यंत्र उपस्थित नहीं जो अतिसुक्ष्म ध्वनियों को ग्रहण कर सकें इसलिए विज्ञान मंत्र विज्ञान को नहीं स्वीकारता।

पहली बार साधना करने वाला साधक बस मंत्र को रट रट कर साधना करता हैं। साधक का मकसद यही होता हैं कि किसी भी प्रकार मंत्र जप पुरा हो जाए तो ऐसे में साधना सिद्धि कैसे मिलेगी? साधक सोचता हैं जब इस मंत्र के जपने मेरे गुरु को सिद्धि प्राप्ति हुई तो मुझे क्यों नही होगी? फिर जब साधना सिद्ध नहीं होती तो देवता और गुरु को दोष देता हैं। ज्यादातर साधक ऐसे गुरु की तलाश में रहते हैं कि कोई ऐसा गुरु मिल जाए जिसने पहले साधना सिद्ध करी हो और किसी भी प्रकार उनसे एक प्रमाणित विधि (जिस साधना को मुझसे पहले किसी अन्य नें सिद्ध किया हो) मिल जाए। इस प्रकार की विधि प्राप्त होने पर भी कई बार मंत्र सिद्ध नहीं हो पाते क्योंकि साधक उस विधि को केवल रिपिट करता हैं। उसमें प्रेम की उपस्थिति होती ही नहीं। मंत्र जप का लक्ष्य मात्र एक निश्चित संख्या पूर्ण करना रह जाता हैं तो ऐसे में सिद्धि होना कठिन हैं। ऐसा शाबर मंत्रों मे हो सकता हैं लेकिन वेदिक मंत्रों में स्थिति बिल्कुल विपरित हैं।

ऐसी परिस्थिति में जब साधक को सम्बन्धित देवता के दर्शन नहीं हो पाते तो साधक अपने आपको ठगा महसुस करता हैं। साधक को अपनी गलतीयों की ओर ध्यान देना चाहिए और अपने आप में अवश्यक सुधार करनें चाहिए। साधना काल में साधक को कुछ अनुभव अवश्य होते हैं जो इस बात का प्रमाण होते हैं कि साधना सही पथ पर चल रही हैं। सही मार्ग पर चल रही साधना बाद में सम्बन्धित देवता के दर्शन भी करवाती हैं। पुनः मूल प्रशन पर आते हैं कि क्या अप्सराए यक्षिणी आदि योनियां होती हैं? तो इसका उत्तर केवल हां में हैं। कुछ साधको को इनके दर्शन अवश्य होते हैं। जैसा कि मैनें पहले भी आपको बताया हैं कि इस प्रकार की योनियां प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष या सुक्ष्म रुप में साधक के हमेशा रहती हैं। मेरे पास ऐसे कई अनुभव हैं लेकिन मैं इस स्थान पर इन्हें लिख नहीं सकता।

अप्सरा या यक्षिणी साधक के साथ सुक्ष्म रुप में रहे या प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष लेकिन सहायता तो हमेशा करती हैं। जीवन मे कई बार ऐसे पडाव आते हैं कि जब इन सिद्धियों का त्याग करना पड़ सकता हैं। सिद्धियों का विसर्जन करने के पश्चात सिद्धियों से सभी प्रकार के सम्पर्क टुट जाते हैं। सिद्धियों की पुनः अवश्यकता होने पर सारी क्रिया दोबारा करनी पड़ती हैं। साधक और देवता परस्पर वचन बद्ध होते हैं। उनमें क्या वचनावली हुई यह तो साधक और देवता ही जानते हैं। वचनों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता।

कभी भी अनुभव के लिए साधना नहीं करनी चाहिए क्योंकि अनुभव के लिए करी गई साधना मानव की तुच्छ प्रवृति की ओर इशारा करती हैं। अनुभवों के लिए करी गई साधना मानव के लिए घातक परिणाम भी दे सकती हैं इस प्रकार के परिणामों के लिए साधक स्वयं जिम्मेवार होता हैं। “पहले इस्तेमाल करें फिर विश्वास करें”, ऐसा नहीं होता। साधना करने पर अनुभव तो स्वयं ही होने लगते हैं। साधनाओं मे हठ की अवश्यकता होती हैं ना कि तर्क की। बस साधना करते जाओं एक दिन परिणाम सामने होगें। असुरों के हठी रुप में साधना करने के कारण ना जाने कितने देवी देवताओं को वरदान देने के लिए विवश कर दिया।

शेष क्रमश...
ईमेल आईडी:- apsaramagic@ "yahoo.in"


    


No comments

अगर आप अपनी समस्या की शीघ्र समाधान चाहते हैं तो ईमेल ही करें!!