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होलाष्टक क्या होता हैं?



होलाष्टक में शुभ कार्यों का प्रारंभ नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से कष्ट और पीड़ाओं की आशंका घेरती है और संबंधों में खटास भी आ सकती है। इस तरह की परेशानियों से बचने के लिए इन दिनों में शुभ कार्यों का निषेध किया गया है।

फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी से लेकर होलिका दहन तक की अवधि को शास्त्रों में होलाष्टक कहा गया है। अर्थात होली से पहले के आठ दिन। होलाष्टक होली के रंगारंग पर्व के आगमन की सूचना देता है। होलाष्टक में किसी भी शुभ कार्य का निषेध माना गया है। इन दिनों को किसी भी संस्कार को संपन्न करने के लिए शुभ नहीं माना गया है।


धर्म में आस्था रखने वाले इन दिनों में किसी भी शुभ कार्य के आयोजन से दूरी रखते हैं। गृहप्रवेश, विवाह और गर्भाधान संस्कार जैसे महत्वपूर्ण संस्कार इस अवधि में बिल्कुल संपन्न नहीं किए जाते हैं। लोग नए कार्य के शुभारंभ का ख्याल भी स्थगित कर देते हैं। होलाष्टक की यह परंपरा उत्तर भारत में अधिक निभाई जाती है और दक्षिण भारत में यह कम ही देखने को मिलती है। होलाष्टक के आठ दिनों में शुभ कार्यों की वर्जना के ज्योतिष और पौराणिक दोनों ही कारण माने गए हैं।

एक मान्यता है कि कामदेव ने भगवान शिव का तप भंग किया था और कामदेव की इस चेष्टा से रुष्ट होकर भगवान शिव ने फाल्गुन की अष्टमी तिथि के दिन ही उसे भस्म कर दिया था। कामदेव की पत्नी रति ने शिव जी की आराधना की और अपने पति कामदेव को पुनर्जीवन का आशीर्वाद पाया। महादेव से रति को मिलने वाले इस आशीर्वाद के बाद ही होलाष्टक का अंत धुलेंडी को हुआ। चूंकि होली से पूर्व के आठ दिन रति ने कामदेव के विरह में काटे इसलिए इन दिनों में शुभ कार्यों से दूरी रखी जाती है।

कामदेव के इस प्रसंग के कारण ही होलाष्टक में शुभ कार्य वर्जित हैं। ऐसा भी माना जाता हैं कि होली के पहले के आठ दिनों में प्रह्लाद को काफी यातनाएं दी गई थीं। प्रह्लाद को मिलने वाली यातनाओं से भरे इन आठ दिनों को अशुभ मानने की परंपरा ही चल पड़ी है।

होलाष्टक में शुभ कार्यों के निषेध का ज्योतिष कारण भी तर्कसंगत है। ज्योतिष के अनुसार अष्टमी को चंद्रमा, नवमी तिथि को सूर्य, दशमी को शनि, एकादशी को शुक्र और द्वादशी को गुरु, त्रयोदशी को बुध, चतुर्दशी को मंगल तथा पूर्णिमा को राहु उग्र स्वभाव के हो जाते हैं।

इन ग्रहों के निर्बल होने से मनुष्य की निर्णय क्षमता क्षीण हो जाती है और इस कारण मनुष्य अपने स्वभाव के विपरीत फैसले कर लेता है। ऐसा न हो इसी कारण इन आठ दिनों में उसे किसी भी तरह के शुभ कार्य का फैसला लेने से मना किया गया है। इन आठ दिनों में मन की स्थिति अवसादग्रस्त रहती है और इसीलिए उसे अवसाद से उबारने के लिए इन आठ में रंगों की आमद हो जाती है। उसके मन में उल्लास लाने और वातावरण को जीवंत बनाने के लिए रंगों का प्रयोग विभिन्न तरीकों से किया जाता है।

होलाष्टक के पहले दिन जिस जगह होली का पूजन किया जाना है वहां गोबर से लिपाई की जाती है और उस जगह को गंगाजल से पवित्र किया जाता है। होलाष्टक में होली की तमाम तैयारियां अंतिम रूप लेती हैं और लोग उत्साह के साथ होली के त्योहार की प्रतीक्षा करते हैं। कुछ स्थानों पर तो होलाष्टक के आठ दिनों में होली मनाई जाती है या होली के रंग किसी न किसी रूप में बिखरने लगते हैं।

ये आठ दिन अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग परंपराओं में गूंथ दिए गए हैं और ज्यादातर इन दिनों में अधिक सक्रियता से सिद्धि प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ समय होलाष्टक के आठ दिनों को व्रत, पूजन और हवन की दृष्टि से अच्छा समय माना गया है।

माना गया है कि जो भी यजमान इन दिनों में हवन कार्य संपन्ना कराते हैं उन्हें पुण्य की प्राप्ति होती है। किसी भी तरह की सिद्धि प्राप्त करने के लिए भी ये दिन श्रेष्ठ हैं। आत्मबल प्राप्त करने की दृष्टि से ये सर्वोत्तम समय है। इस समय भगवान की भक्ति में ध्यान लगाना सबसे उपयुक्त है और इस तरह उनकी कृपा प्राप्त की जा सकती है।

दान के लिए श्रेष्ठ समय: होलाष्टक के दिन दान करने की दृष्टि से भी शुभ दिन हैं। इन दिनों हमें अधिक उदारता के साथ कपड़े, अनाज, धन और यथासंभव दान करना चाहिए। अपनी हैसियत के मुताबिक इन दिनों में दान करने से भगवान की कृपा प्राप्त होती है और जीवन के कष्टों का निवारण होता है।

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